इतनी करो न हमसे बेरुखी,
ये जान बस निकलने की देर है;
यूं भीनी खुशबू आंखों में समेटे, चले थे हम सभी को अपना बनाने,
अब तो ये आसमाँ बस छलकने की देर है;
इन सपनों के खुले दामन से, तारे चुनते थे हम मुशक्कत से,
उस दामन के अधूरे हिस्सों से अब आँसू टपकने की देर है;
कुम्हलाते हुए लिफाफों में रखे अल्फाज़ गुनगुनाते थे,
हमको अपना राजदार मिल गया था,
उन्हीं झिझकते अल्फाज़ों के अब सिसकने की देर है;
रूह तक छुआ था जिन उन्गलिओं ने,
उनमे बहने, खोने की देर है,
उनके खोने की देर है, ख़मोश होने की देर है......
Wednesday, November 14, 2007
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2 comments:
Is it just me or did you intentionally put question marks in your post?
mashallah....
aap ki poetry to lajawaab hain..
samane nahi hain warna likhane waale ke haath chumane ki der hain
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